Saturday, July 31, 2010

याद नहीं कब हँसे थे दिल से

याद नहीं कब हँसे दिल से
हमें याद नहीं कब हँसे थे दिल से

जिन्दगी काफी तेज हो गई
इच्छाए अपनी चुपचाप सो गई
एक-एक पल जाने किस सोच पर छुटा
जिंदगी गिरती बूंद हो गई !

डर लगता है हँसने रोने से
सब कुछ पाने और कुछ खोने से
उब गए सुनी आखों से
याद करो कब हँसे थे दिल से

सम्मान नहीं अब इन आखों में
एहसास नहीं अपनी बातो में
एक मन डरपोक मुझे कहता है
छोटे मन में सिर्फ डर रहता है

हर एक दिखता है इच्छाओ का हत्तेयारा
ना शत्रु ना कोई लगता है प्यारा
दुविधा है इच्छाए है राख या मोती
भूल गया इच्छाए क्या है होती
काले पढ़ गए सपने पलकों के
याद नहीं कब हँसे थे दिल से
याद नहीं कब हँसे थे दिल से !!

5 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत उदास रचना है....जीवन मे कई बार ऐसा समय भी आता है लेकिन ज्यादा देर टिकता नही...

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

मंगलवार 3 अगस्त को आपकी रचना ... चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर ली गयी है .कृपया वहाँ आ कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ .... आभार

http://charchamanch.blogspot.com/

कमेंट्स की सेटिंग्स में से वर्ड वेरिफिकेशन हटा लें ..टिप्पणी करने वालों को आसानी होगी

नीरज गोस्वामी said...

बहुत अच्छी रचना...बधाई...
नीरज

Rahul Singh said...

याद करने की जहमत ही क्‍यों. कुछ भूलते भी रहें, हंसी आती रहेगी. मनोहर श्‍याम जोशी का वाक्‍य है - 'कितना त्रासद है यह हास्‍य और कितना हास्‍यास्‍पद है यह त्रास.

M VERMA said...

हँसना और रोना सापेक्ष है. दोनों का होना जरूरी है.
सुन्दर भाव है इस रचना में .. सुन्दर रचना है.

कुछ सुझाव देने थे हो सके तो मिल लेना